भगवान से भक्ति नहीं, भक्ति से भगवान हैं
भगवान से भक्ति नहीं, भक्ति से भगवान हैं
इस संसार में जीवन जीने का सबसे समझदारी भरा तरीका है - हमेशा भक्ति की अवस्था में रहना। हालांकि ज्यादातर विचारशील लोग मेरी बात से सहमत नहीं होंगे, क्योंकि तथाकथित भक्त अकसर इस धरती के सबसे बड़े मूर्ख नजर आते हैं। एक कारण तो यह है कि लोग बस भक्त होने का ढोंग और दावा करते हैं, वे वास्तव में भक्त हैं नहीं। वे बस जबरदस्त प्रशंसक हैं, उन्हें आप बस 'फैन' के रूप में देख सकते हैं, लेकिन आमतौर पर उन्हें भक्त की तरह समझ लिया जाता है।
हो सकता है उसने कभी किसी की कोई पूजा न की हो लेकिन फिर भी वह भक्त है। हो सकता है वह उस अवस्था तक ध्यान, प्रेम या पूजा के जरिये पहुंचा हो, लेकिन अगर वह हरदम लगा हुआ है तो वह भक्त है।
भक्त होने का मतलब प्रशंसक या फैन होना नहीं है। भक्त तो सभी कारणों से परे होता है। भक्त एक ऐसी दुनिया में होता है जहां कुछ भी सही या गलत नहीं है, जहां कोई पसंद या नापसंद नहीं है। भक्ति वह तरीका है जो आपको उस दुनिया में आसानी से ले जाता है। भक्ति, प्रेम भी नहीं है। प्रेम तो एक फूल की तरह होता है, फूल सुंदर होता है, सुगंधित होता है लेकिन मौसम के साथ वह मुरझा जाता है। भक्ति पेड़ की जड़ की तरह होती है। चाहे जो भी हो, यह कभी नहीं मुरझाती, हमेशा वैसी ही बनी रहती है।बसंत का समय हो तो पेड़ पर खूब पत्तियां आती हैं। पतझड़ आता है, तो यह फूलों से लद जाता है। सर्दियां आती हैं, यह उजड़ जाता है। बाहर चाहे जो चल रहा हो, लेकिन जड़ें अपना काम लगातार करती रहती हैं। एक पल के लिए भी इधर-उधर विचलित नहीं होतीं। पेड़ का पोषण करने का जड़ों का जो मकसद होता है, वह एक भी पल के लिए कम नहीं होता, भले ही उसकी सतह पर कैसे भी बदलाव हो रहे हों। जड़ें कभी ऐसा नहीं सोचतीं कि अरे, कोई पत्ती ही नहीं बची, अब मैं क्यों काम करूं? कोई फूल नहीं है, कोई फल नहीं आ रहा है, मैं क्यों काम करूं? ऐसा नहीं होता है। जड़ें बस हमेशा काम करना जारी रखती हैं। अगर कोई हमेशा सजगता पूर्वक काम में लगा रहता है, नींद में भी उसका काम जारी है, तो वह भक्त है। केवल भक्त ही हमेशा लगा रह सकता है। हो सकता है उसने कभी किसी की कोई पूजा न की हो लेकिन फिर भी वह भक्त है। हो सकता है वह उस अवस्था तक ध्यान, प्रेम या पूजा के जरिये पहुंचा हो, लेकिन अगर वह हरदम लगा हुआ है तो वह भक्त है।
एक बड़ी सुंदर कहानी है। एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की - 'हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।' राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- 'मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?' योगी बोला- 'हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।'
रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।
भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है।
उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला - हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया - 'महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।' तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।
भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।
जिस मानव देह को लोग बिना भक्ति के ही खत्म कर देते हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं कि भगवान ने करुणा करके उन्हें यह तन दिया है। उस शरीर को पाने के बाद उसका सही अर्थों में लोग उपयोग नहीं कर रहे हैं। उसे अगर भक्ति के मार्ग पर लगाया जाए तो वह भगवान को भी वश में करके उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। जो स्वर्ग चाहते हैं, उन्हें पता नहीं कि वहां केवल भोग किया जा सकता है। स्वर्ग में रहने वाले भगवान भक्ति और कर्म नहीं कर सकते हैं। यह पुण्य लाभ तो मानव शरीर पाने से ही संभव है। मानव शरीर पाने के बाद ही कर्म करके मनुष्य को भगवान से प्रेम करने का अवसर मिलता है। इसलिए भगवान की भक्ति करनी चाहिए। 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव जीवन पाने के बाद भी जो लोग स्वर्ग पाने की इच्छा रखते हैं, वे मूर्ख हैं। कर्म इस संसार में आने वाला हर जीव करता है, मगर भगवत् आराधना और भक्ति केवल मानव तन से ही संभव है। उसके बाद भी कुछ लोग अपने कर्म और भक्ति के बाद स्वर्ग पाने की इच्छा मन में पालते हैं। उन्हें पता नहीं होता है कि जिसे वे स्वर्ग पाने का रास्ता समझते हैं, उस मानव तन को पाने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं, क्योंकि मानव देह पाने के बाद ही भक्ति रस से मिलने वाले आनंद का अनुभव किया जा सकता है।
हो सकता है उसने कभी किसी की कोई पूजा न की हो लेकिन फिर भी वह भक्त है। हो सकता है वह उस अवस्था तक ध्यान, प्रेम या पूजा के जरिये पहुंचा हो, लेकिन अगर वह हरदम लगा हुआ है तो वह भक्त है।
भक्त होने का मतलब प्रशंसक या फैन होना नहीं है। भक्त तो सभी कारणों से परे होता है। भक्त एक ऐसी दुनिया में होता है जहां कुछ भी सही या गलत नहीं है, जहां कोई पसंद या नापसंद नहीं है। भक्ति वह तरीका है जो आपको उस दुनिया में आसानी से ले जाता है। भक्ति, प्रेम भी नहीं है। प्रेम तो एक फूल की तरह होता है, फूल सुंदर होता है, सुगंधित होता है लेकिन मौसम के साथ वह मुरझा जाता है। भक्ति पेड़ की जड़ की तरह होती है। चाहे जो भी हो, यह कभी नहीं मुरझाती, हमेशा वैसी ही बनी रहती है।बसंत का समय हो तो पेड़ पर खूब पत्तियां आती हैं। पतझड़ आता है, तो यह फूलों से लद जाता है। सर्दियां आती हैं, यह उजड़ जाता है। बाहर चाहे जो चल रहा हो, लेकिन जड़ें अपना काम लगातार करती रहती हैं। एक पल के लिए भी इधर-उधर विचलित नहीं होतीं। पेड़ का पोषण करने का जड़ों का जो मकसद होता है, वह एक भी पल के लिए कम नहीं होता, भले ही उसकी सतह पर कैसे भी बदलाव हो रहे हों। जड़ें कभी ऐसा नहीं सोचतीं कि अरे, कोई पत्ती ही नहीं बची, अब मैं क्यों काम करूं? कोई फूल नहीं है, कोई फल नहीं आ रहा है, मैं क्यों काम करूं? ऐसा नहीं होता है। जड़ें बस हमेशा काम करना जारी रखती हैं। अगर कोई हमेशा सजगता पूर्वक काम में लगा रहता है, नींद में भी उसका काम जारी है, तो वह भक्त है। केवल भक्त ही हमेशा लगा रह सकता है। हो सकता है उसने कभी किसी की कोई पूजा न की हो लेकिन फिर भी वह भक्त है। हो सकता है वह उस अवस्था तक ध्यान, प्रेम या पूजा के जरिये पहुंचा हो, लेकिन अगर वह हरदम लगा हुआ है तो वह भक्त है।
एक बड़ी सुंदर कहानी है। एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की - 'हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।' राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- 'मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?' योगी बोला- 'हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।'
रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।
भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है।
उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला - हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया - 'महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।' तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।
भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।
जिस मानव देह को लोग बिना भक्ति के ही खत्म कर देते हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं कि भगवान ने करुणा करके उन्हें यह तन दिया है। उस शरीर को पाने के बाद उसका सही अर्थों में लोग उपयोग नहीं कर रहे हैं। उसे अगर भक्ति के मार्ग पर लगाया जाए तो वह भगवान को भी वश में करके उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। जो स्वर्ग चाहते हैं, उन्हें पता नहीं कि वहां केवल भोग किया जा सकता है। स्वर्ग में रहने वाले भगवान भक्ति और कर्म नहीं कर सकते हैं। यह पुण्य लाभ तो मानव शरीर पाने से ही संभव है। मानव शरीर पाने के बाद ही कर्म करके मनुष्य को भगवान से प्रेम करने का अवसर मिलता है। इसलिए भगवान की भक्ति करनी चाहिए। 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव जीवन पाने के बाद भी जो लोग स्वर्ग पाने की इच्छा रखते हैं, वे मूर्ख हैं। कर्म इस संसार में आने वाला हर जीव करता है, मगर भगवत् आराधना और भक्ति केवल मानव तन से ही संभव है। उसके बाद भी कुछ लोग अपने कर्म और भक्ति के बाद स्वर्ग पाने की इच्छा मन में पालते हैं। उन्हें पता नहीं होता है कि जिसे वे स्वर्ग पाने का रास्ता समझते हैं, उस मानव तन को पाने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं, क्योंकि मानव देह पाने के बाद ही भक्ति रस से मिलने वाले आनंद का अनुभव किया जा सकता है।
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