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आस्था पे विश्वास
एक सुबह जब मैं सैर करने निकला तो मार्ग में मुझे एक साधु मिला। 'जान ना पहचान, बड़ी बी सलाम' की तर्ज पर मैंने सीधे-सीधे पूछा- 'महाराज आपको यह पता है कि आपको आज भोजन मिलेगा या नहीं।'
इस बात की चिंता मुझे नहीं करना है, साधु ने मुस्कराते हुए कहा- 'इसकी चिंता उसे करना है, जिस पर मैंने सारी चिंताएँ छोड़ दी, जो सबकी चिंता करता है।
उस वक्त तो मैंने साधु की बात पर खास तवज्जो नहीं दी। मगर अब बरसों बाद जब साधु की बात पर जब-जब भी विचार करता हूँ, तो सोचता हूँ कि आस्था, विश्वास और समर्पण सच्चा हो तो मनुष्य खुद को इतना निश्चिंत महसूस करता है कि उसकी चिंताओं के बादल खुद-ब-खुद छँटने लगते हैं।
मगर सवाल यह उत्पन्न होता है कि आस्तिकों में ऐसे कितने आस्तिक हैं, जिनका विश्वास, जिनका समर्पण उक्त साधु की तरह हो। जो अपनी चिंताओं को ईश्वर को सौंपकर निश्चिंत हो गए हों? इस सवाल का जवाब यही होगा कि लाखों-करोड़ों में गितनी के ही आस्तिक इस स्तर के होंगे।
दरअसल, अगर देखा जाए तो अधिकांश आस्तिक अपनी समस्याओं को लेकर निजी स्तर पर चिंतित रहते हैं। वह कभी इस हद तक कि अगर वे नहीं हुए तो क्या होगा? अथवा जो करेंगे वे स्वयं करेंगे। कर्ता होने का भाव तो इस हद तक मन में समाया होता है कि किसी भी कार्य के संपन्न होने का श्रेय प्रभु को धन्यवाद दिए बगैर आस्तिकगण स्वयं लेना चाहते हैं।
मजे की बात तो यह कि जो आस्तिक एक ओर विधाता के लेख को अटल मानता है, ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ते का हिलना भी असंभव माना है और यह मानता है कि होनी तो होकर रहे, अनहोनी न होय। वहीं आस्तिक दूसरी ओर विभिन्न उपायों की मर्जी को, विधाता के लेख को बदलने की कोशिश करता है। वह हरसंभव कोशिश करता है कि ऐसा हो जाए अथवा ऐसा न हो। वह ईश्वरीय इच्छा को सर्वोपरि मानने के बजाय ऐसे विभिन्न व्यक्तियों के पास जाता है, जो स्वनामधन्य ईश्वरीय अभिकर्ता होते हैं।
अगर हम वास्तव में आस्तिक हैं और हमारी ईश्वर पर प्रबल आस्था है। हमने सारी चिंताएँ ईश्वर पर छोड़ दी हैं, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि जीवन-मरण, लाभ-हानि, यश-अपयश ईश्वर के हाथ में है। कोई मनुष्य इतना सक्षम नहीं है जो ईश्वरीय विधान में रत्तीभर भी परिवर्तन कर सके। क्या हम इन पंक्तियों पर विश्वास करेंगे, 'अब छोड़ दिया है जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में, अब हार तुम्हारे हाथों में, जीत तुम्हारे हाथों में।'
आस्था' शब्द 'फेथ' का हिन्दी रूपांतरण है, जिसका प्रयोग 'श्रृद्धा' या 'निष्ठा' के अर्थ में किया जाता है। भारतीय चिंतन परंपरा में आस्था या श्रद्धा को ही 'परमसत्' के साक्षात्कार का आधार माना गया है। परमसत् की अनुभूति का कारण बुद्धि होकर 'बोधि' है। बुद्धि-प्रसूत तर्क के द्वारा उसे जाना नहीं जा सकता। उसका साक्षात्कार बोधि या श्रद्धा से ही संभव है। गीता भी यही कहती है - श्रद्धावानलभते ज्ञानम्। धार्मिक आस्था का संबंध हृदय से होता है। हृदयहीन व्यक्ति धार्मिक सत्ता के प्रति आस्थावान नहीं हो सकता। धार्मिक महापुरूषों, सन्तों ओर महात्माओं के त्यागमय जीवन से आस्था बलवती होती है। धर्मशास्त्रों में विवेचित चमत्कारिक घटनाओं से आस्था सुदृढ़ होती है। विज्ञान का विरोध अंधविश्वास से है, कि आस्था या श्रद्धा से। अंधविश्वास को दूर करके विज्ञान श्रद्धा के मूल तत्व को उजागर करता है।आस्था तर्क बुद्धि द्वारा परीक्षणीय आनुभाविक ज्ञान और अंध विश्वास दोनों से भिन्न है। वस्तुपरक ज्ञान सर्वथा स्पष्ट और परीक्षणीय होता है। परन्तु आस्था मनुष्य की 'निबौद्धिक मनोदशा' है और वैज्ञानिक ज्ञान की सामान्य विधियों की पकड़ के बाहर है। धार्मिक व्यक्ति ईश्वर की सत्ता और आत्मा की अमरता में ढृढ़ आस्था रखता है, भले ही उसका कोई तार्किक आधार हो। धर्मचारी व्यक्ति के लिए यह आस्थापरक ज्ञान निश्चयात्मक और संदेह से परे होता है। ज्ञातव्य है कि यह निश्चयात्मकता वस्तुनिष्ठ होकर व्यक्तिनिष्ठ है। उदाहरण के लिए; आत्मवादी दार्शनिकों की जितनी गहन आस्था 'आत्मा' में है, उतनी ही गहन आस्था बौद्ध दार्शनिकों की 'अनात्मा' में है। दोनों की निष्ठा का आधार आस्था है, तर्क नहीं किन्तु उनकी यह आस्था असंगत नहीं है।बौद्धिक ज्ञान में प्रतिबद्धता नहीं होती है, इसके खंडन की संभावना सदैव बनी रहती है। ऐसे ज्ञान का त्याग करने में व्यक्ति को तनिक भी संकोच नहीं होता है। परन्तु आदर्शों या मूल्यों में आस्था रखने वाला व्यक्ति कभी तटस्थ या उदासीन नहीं रह सकता। प्रमाणों के अभाव में भी आस्था त्याज्य नहीं है। यदि मजबूरी या विवशता में आस्था का त्याग करना पड़े तो असहनीय मानसिक वेदना झेलनी पड़ती है। इसका कारण यह है कि आस्था में सम्पूर्ण व्यक्तित्व अंतर्गत होता है, परन्तु ज्ञान और विश्वास के प्रति व्यक्ति तटस्थ रहता है। नास्तिक व्यक्ति के लिए धार्मिक आस्था प्रभावहीन है, क्योंकि वह ईश्वरीय सत्ता का ज्ञान खोजता है, भक्ति नहीं। आस्था में संकल्प और कर्म का तत्व होता है, जो उसे विश्वास से पृथक करता है।'विश्वास' 'बिलीफ' की परिभाषा देते हुए, एनसायक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स में कहा गया है कि 'विश्वास आश्वासन अथवा दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति है। यह अपनी आन्तरिक अनुभूतियों के प्रति मन की वह मनोवृत्ति हैं, जिसमें वह अपने द्वारा निर्दिष्ट वास्तविकता को यथार्थ महत्व या मूल्य के रूप में स्वीकृत एवं समर्थित करता है।' इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि विश्वास में वास्तविकता के प्रति आज्ञाकारिता का भाव पाया जाता है। विश्वास मन की स्थिति होने के फलस्वरूप तर्कणा से परिपूर्ण है।विश्वास (बिलीफ) को दो वर्गो में विभाजित किया गया है 'बिलिफ इन' और 'बिलीफ दैट'। किसी मानव अथवा ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखने को (बिलीफ इन) कहा गया है तथा किसी प्रतिज्ञप्ति (प्रीपोजिशन) में विश्वास रखने को बिलीफ देट की संज्ञा दी जाती है। बिलीफ इन किसी मानव, ईश्वर अथवा अतीन्द्रिय सत्ता के प्रति प्रवृत्ति का द्योतक है, जबकि बिलीफ देट प्रतिज्ञप्ति के प्रति मात्र प्रवृति है। उदाहरण के लिए, जब हम यह कहते हैं कि मुझे ईश्वर में विश्वास है अथवा मुझे अपने मित्र में विश्वास है तो हम बिलीफ इन का आश्रय ले रहे होते हैं। जबकि इसके विपरीत जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि 'मैं विश्वास करता हूं कि ईश्वर प्रेममय है, ईश्वर विश्व का रचयिता है, ईश्वर मनुष्य की सहायता करता है, इत्याद', तब उसके विश्वास को हम 'बिलीफ देट' की श्रेणी में रखते है। बिलीफ इन तथा बिलीफ देट में मूल अन्तर यह है कि बिलीफ इन तर्कणा से परे है, जबकि बिलीफ देट में युक्ति एवं तर्क के लिए पर्याप्त स्थान है। जहां एक ओर बिलीफ इन भावना से ओत प्रोत है वहीं दूसरी ओर बिलीफ देट में बौद्धिकता निहित है। बहुधा बिलीफ इन को आस्था के समानान्तर स्वीकारा गया है।अब प्रश्न यह उठता है कि आस्था एवं विश्वास में परस्पर क्या संबंध है? मेरे विचार से आस्था एवं विश्वास दोनों में एक आध्यात्मिक, इन्द्रियातीत और अति-तार्किक सत्ता के प्रति विश्वास पाया जाता है। दोनों ही धार्मिक व्यक्ति को प्रेरित करते हैं तथा दोनों में ही आज्ञाकारिता का भाव भी पाया जाता है। परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा भ्रामक होगा कि आस्था और विश्वास अभिन्न है।आस्था, विश्वास का पर्याय नहीं है। विश्वास का आधार बौद्धिकता है, जबकि आस्था भावनापरक होती है। आस्था और विश्वास में मूल अंतर यह है कि विश्वास परिवर्तनशील होता है, जबकि आस्था अपरिवर्तनशील होती है। विश्वास की अपेक्षा आस्था अधिक स्थिर होती है। आस्था व्यक्ति की सघन मनोदशा है, जिसका त्याग आसान नहीं होता है। निरर्थक सिद्ध होने पर विश्वास को आसानी से त्यागा जा सकता है, किन्तु आस्था के असिद्ध होने पर भी उसे त्यागा नहीं जाता, वरन् उसको प्रमाणित करने की निरंतर कोशिश की जाती है। मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता ही आस्था है। विश्वास केवल बौद्धिक होता है, किन्तु आस्था में ज्ञान, भाव और क्रिया तीनों विद्यमान रहते हैं। बुद्धि, भाव और संकल्प का समाकलित रूप ही आस्था है। भक्त के लिए आस्था का वही महत्व है, जो महत्व वैज्ञानिकों के लिए तर्कबुद्धि का है। बिना आस्था के धर्म परायण होना असंभव है। किसी आर्दश या मूल्य अथवा धर्म्रग्रंथ में दृढ़ विश्वास रखना ही आस्था है, जिसे बिना किसी पर्याप्त प्रमाण के मनुष्य स्वीकार कर लेता है। खंडित तर्क बुद्धि होती है, टूटता वैज्ञानिक सिद्धान्त है, तिरस्कृत विश्वास होता है, किन्तु अप्रमाणित होने पर भी ईश्वरास्था दृढ़ और अटूट होती है।यह स्पष्ट है कि धर्म का मूल आधार आस्था है तथापि धर्मिक विश्वास के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। आस्था और विश्वास का सीधा संबंध ज्ञान से है। मनुष्य जीवन में जो भी ज्ञान प्राप्त करता है, उसकी पृष्ठभूमि में आस्था और विश्वास का प्रमुख महत्व है। संदेह, शंकाओं और विचारों का ऊहापोह एक दिन तो समाप्त होना ही है। इस प्रक्रिया में बुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इसी बौद्धिक धरातल पर ही आस्था और विश्वास का भी उद्भव होता है। बुद्धि की क्रिया में विश्लेषण और वर्गीकरण का विशेष महत्व होता है, किन्तु इसके द्वारा किसी वस्तु या सत्ता की पूर्णता का बोध संभव नहीं है। अन्त में हमें एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आस्था और विश्वास को आधार मानना होगा।
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